Dr bhimrao ambedkar biography in hindi pdf free download

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डॉ भीमराव आम्बेडकर का जीवन परिचय – Biography Of Dr. Bhimrao Ambedkar PDF Free Download

बाबासाहेब आंबेडकर इतिहास

भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने जीवन भर दलितों की मुक्ति एवं सामाजिक समता के लिए संघर्ष किया।

उनका पूरा लेखन इसी संघर्ष और सरोकार से जुड़ा हुआ है। स्वयं दलित जाति में जन्मे डॉ. आंबेडकर को बचपन से ही जाति आधारित उत्पीड़न-शोषण एवं अपमान से गुजरना पड़ा था।

इसीलिए विद्यालय के दिनों में जब एक अध्यापक ने उनसे पूछा कि “तुम पढ़-लिख कर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था मैं पढ़-लिख कर वकील बनूंगा, अछूतों के लिए नया कानून बनाऊंगा और छुआछूत को खत्म करूंगा।

डॉ. आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन इसी संकल्प के पीछे झाँक दिया। इसके लिए उन्होंने जमकर पढ़ाई की।

व्यापक अध्ययन एवं चिंतन-मनन के बल पर उन्होंने हिंदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम में एक नयी अंतर्वस्तु भरने का काम किया। वह यह था कि दासता का सबसे व्यापक व गहन रूप सामाजिक दासता है और उसके उन्मूलन के

बिना कोई भी स्वतंत्रता कुछ लोगों का विशेषाधिकार रहेगी, इसलिए अधूरी होगी। उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यतः तीन प्रेरक व्यक्ति रहे- बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले ।

जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिंदू समाज से मोहभंग होने के बाद बुद्ध के समतावादी दर्शन में आश्वस्त हुए और 14 अक्तूबर, सन् 1956 को 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध मतानुयायी बन गए।

भारत के संविधान निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कह कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

उनको समूची बहुमुखी विद्वत्ता एकांत ज्ञान-साधना की जगह मानव मुक्ति व जन-कल्याण के लिए थी यह बात वे अपने चिंतन और क्रिया के क्षणों से बराबर साबित करते रहे। अपने इस प्रयोजन में वे अधिकतर सफल भी हुए।

श्रम विभाजन और जाति-प्रथा

यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं।

समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का हो दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।

इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति प्रथा बम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है।

श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती।

भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि वह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।

कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके।

इस सिद्धांत के विपरीत, जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया। जाता है।

जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बांध भी देती है।

भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है.

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